डॉ दीप्ति प्रिया के आठ कविताओं का संग्रह ‘विमोह’ अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति का संवाहक है, भावात्मक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का संग्राहक है। … श्रीमद्भगवद् गीता के पात्रों की भावनाओं को मनोवैज्ञानिक ढंग से ऐसा चित्रित किया गया है कि साम्प्रतिक व्यक्ति अपनी स्थिति/मनोदशा ही उसे समझ कर सही निर्णय लेने की शक्ति पा सके, आत्मतत्व के ज्ञान और भक्ति ला सके। -प्रो० शशिनाथ झा, कुलपति, कामेश्वरसिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय |
‘विमोह’ एक दृष्टि में
डॉ दीप्ति प्रिया के आठ कविताओं का संग्रह ‘विमोह’ अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति का संवाहक है, भावात्मक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का संग्राहक है। महाभारत की कुछ व्यक्तिवाचक संज्ञाओं को भाववाचक संज्ञा के रूप में लेकर यहाँ उनके सदाचार से वर्तमान सामाजिक का प्रवृत्ति मार्ग प्रशस्त होता है दुराचार से निवृत्ति का मार्ग विश्वस्त होता है। कथ्य की स्पष्टता सर्वत्र झलकती है-
द्रौपदी द्रव्य नहीं, सृष्टि है
उसका न्याय ही होगा धर्म ।। पृ० ३७
श्रीमद्भगवद् गीता के पात्रों की भावनाओं को मनोवैज्ञानिक ढंग से ऐसा चित्रित किया गया है कि साम्प्रतिक व्यक्ति अपनी स्थिति/मनोदशा ही उसे समझ कर सही निर्णय लेने की शक्ति पा सके, आत्मतत्व के ज्ञान और भक्ति ला सके।
ये कविताएं छन्दों के नियम से परे रहने पर भी पद्यात्मक हैं, कृष्ण को कृष्णा (द्रौपदी) बनाने के अंग्रेजी मानसिकता रखने पर भी हृद्यात्मक हैं। कुछ आग्रह शब्दों लावण्यता (लावण्य), ओज्सविता (ओजस्विता), दीप्राणिका आदि के प्रयोगों के कारण प्रगतिमार्ग (तथाकथित) का पथिक है उद्दात भावनाओं का रथिक है। परिस्थितिवश, स्वार्थवश, मोहवश, राजमार्ग को छोड़कर कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए ज्ञानी/अज्ञानी व्यक्तियों को मोह से उबरने का यह आध्यात्मिक/मनोवैज्ञानिक भावों का विस्तार है, मानवों के मोहजाल का निस्तार है। धन्यवाद दीप्ति जी को।
प्रो० शशिनाथ झा,
कुलपति, कामेश्वरसिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय