भारत अपना सत्तरवाँ गणतंत्र दिवस मना रहा है, सत्तरवें गणतंत्र दिवस परेड का विषय ‘गांधी का जीवन’ था। प्रयास राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की एक सौ पचासवां वीं जयंती वाले वर्ष पर उन्हें एक बार फिर श्रद्धांजलि देते हुए उनके जीवन और जीवन के दर्शन को समझने और समझाने की थी। हम सभी को गांधी दर्शन के समझ का विस्तार करते हुए, उसे अपनी भाषा में (खुद से सम्भाषित होते हुए) लिखना चाहिए, उन पर विवेचना करनी चाहिए। गांधी दर्शन से अपने अंदर भाव-संवेदना विकसित करना, गांधी जी की एक सौ पचासवीं जयंती वाले वर्ष पर उन्हें सत्यता के साथ श्रद्धांजलि देने का एक उत्तम प्रयास होगा। इस तरह हमारे अंदर सकारात्मक एवं संवेदनशील विचार ही प्रधान हो, ऐसी दृष्टिकोण को विकसित करने की महत्वपूर्ण आधार स्थापित होंगी। यही भाव-संवेदना सत्यता का मार्ग प्रशस्त करते हुए भिन्नता में एकता और अखंडता को बनाए रखने में सहायक होगी। हमारे प्रजातंत्र को सुरक्षित करते हुए गणतंत्र को मजबूती देने में सहायक होगी।
आमतौर पर सारी परेशानी का प्रमुख कारण सम्मान की कमी है। मेरी रचनाओं (काव्य संग्रह “दीप्राणिका“) का उद्देश्य लोक का सम्मान की दिशा में दृष्टि को मोड़ना है, जहाँ मनुष्य दूसरों के सम्मान से पहले स्वयं का सम्मान करना सीखे। ‘सम्मान’ केवल गीतकाव्य, कथाओं और शब्दों का अंशमात्र न हो अपितु भाव में परिवर्तित हों। भावनाएं सम्मान से प्रेरित हों, न कि मिथ्या से। मनुष्य न सिर्फ स्वयं का, दूसरों का, बल्कि वस्तुओं का, समय का भी सम्मान करें. विचारो में जब ऐसा परिवर्तन आयेगा तब भेद-भाव, मैं-तुम, मेरा-तुम्हारा से बहार आकर प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मो को निष्ठावान होकर पूर्ण करेगा, विचारों का उत्थान होगा, व्यवहार में आत्मियता का सम्पूर्ण समावेश होगा।
काका कालेलकर, एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक और पत्रकार थे। वे महात्मा गांधी के दर्शन और विधियों के अनुयायी थे। वो अपने पुस्तक ‘जीवन साहित्य’ के अध्याय 'भक्ति की दृष्टि' मैं लिखते हैं की – ‘गांधी जी का भक्त होने का मुख्य कारण यह है की, मुझे जो श्रद्धा गांधी जी दे सके, वह कोई और न दे सका। …. गांधी जी को मैं पुजता हूँ, उन्हें दैवी पुरुष कहता हूँ, किन्तु यह इसलिए नहीं कि वे देश-सेवक हैं, राजनितज्ञ हैं, या अत्यन्त नीतिमान हैं, बल्कि इसलिए की, मैं जैसा भी हूँ, आत्मार्थी हूँ, और यह आत्मा मुझे गांधी जी से प्राप्त हो जायेगी, ऐसी श्रद्धा मुझमें है। काका कालेलकर जी की पुस्तक ‘जीवन साहित्य’ हम सभी को पढ़ना चाहिए। हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों से लिखी इस पुस्तक की भूमिका में वो कहते हैं कि - इस पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर मौलिकता झलकती है।
गांधी जी ने अपने अंदर श्रद्धा का अकल्पनीय विकास किया था। उनकी श्रद्धा, अपने अटल सिधान्तो, विचारों पर, संकल्पों पर, देश पर, देशवासियों पर... अकल्पनीय है। श्रद्धा से ही ईमानदारी और कृतज्ञता विकसित होती है, स्वयं और दूसरों के लिए सम्मान विकसित होता है, ईर्ष्या व द्वेष मिटाता है, अपने अन्दर संतोष का विस्तार करता है। श्रद्धा का तात्पर्य यंहा मनोवृत्ति से है,, आदरपूर्ण आस्था या विश्वास से है, स्नेह के भाव से है, प्रसन्नता से है।
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हाँ जीवन में प्रश्न हैं कई
सिद्धी से पहले समस्या कड़ी,
मन को गर कृतज्ञ बनाओ
हर समस्या आशिष बनाओ!
शांति, आनंद, सुख और ज्ञान
वैभव, सम्पदा, धनिक और धान्य,
प्रीती सबकी फिर तुमसे गहरी
होगे सकल-सर्वे तुम मान्य!
- दीप्राणिका.१
हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद अपने पुस्तक ‘गांधी जी की देन’ में, गांधी जी के जीवन, सिद्धांत दूरदर्शिता, महानता, दर्शन, शिक्षा, संघर्ष, संकल्प और प्रायश्चित जैसे विविध पहलू को उजागर किया है। यह छोटी सी पुस्तक जिसमें एक सौ बीस पृष्ठ, अठारह अध्याय में संकलित है, इस पुस्तक को पढ़ने से गांधी जी की महानता को समझने का अवसर मिलेगा। यह समझने का अवसर मिलेगा कि गांधीवाद का अर्थ क्या है, क्यों इतने सारे विद्वानों की उत्साह और आकर्षण गांधी दर्शन के लिए आज भी है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद अपने में स्पष्ट और आवश्यक उदाहरणों के साथ, गांधी जी की हम सभी भारतवासी और और मानवता को उनकी देन का एक बहुत स्पष्ट विवेचना किया है, संक्षिप्त मैं अपने विचारों को लिखा है। वो लिखते हैं की - मानव जीवन की, विशेषकर भारतीय जीवन की, कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसपर गांधी जी का ध्यान न गया हो और जिसे सुलझाने का उपाय भी उन्होंने न सुझाया हो, यहां तक की उन्होंने स्वयं अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलतापूर्वक उनका प्रयोग भी किया था, जिसके लिए उनका जीवन और इतिहास साक्षी है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद पुस्तक ‘गांधी जी की देन’ में लिखा है की - दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने भारतीय प्रवासियों के दुखों और अपमानों को दूर करने के लिए अपने सत्याग्रह के अमोघ सस्त्र का अविष्कार किया था। भारत की दुर्दशा, पराधीनता और अकर्मण्यता को दूर करने के लिए उन्होंने इसी सस्त्र का प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को सिखाया। सत्याग्रह का अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह करना, अर्थात सत्य का मन से, वॉच से और कर्म से पालन करना।… सत्य के पालन का अर्थ सत्याचरण तभी हो सकता है, जब एक मनुष्य सत्य को सिर्फ अपने जीवन मैं ही न पालकर दूसरे को भी उसके पालन में सहायक हो। इसलिए सत्य के पालन में दूसरे पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डाला जा सकता। अहिंसा का मूल तत्व यही है। हम कोई ऐसा काम नहीं करें, जिससे दूसरों को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचे। सत्य का पालन इस तरह बिना अहिंसा के असंभव है। सत्याचरण अहिंसा के बिना असंभव है। इसलिए गांधी जी ने दोनों को एक बताया और अहिंसा को सत्य में निहित पाया। ईश्वर सत्य है, और ईश्वर को जानने का केवल एकमात्र रास्ता सत्य का है। वह हमेशा कहा करते थे की साधन और साध्य में अंतर नहीं होता। इसलिए उन्होंने केवल ईश्वर को सत्य ही नहीं बताया, बल्कि सत्य को ही ईश्वर कह दिया।
सकारात्मक विचारों से सकारात्मक संवेदनाएं उद्भूत होती हैं, जिससे मानवीय मूल्य प्रशस्त होती हैं। भाषा कोई भी हो, देश या समाज कोई भी, संवेदनशील साहित्य मानवीय मूल्यों की नींव रखने में सहायक होती हैं। मेरा प्रयास भी विचारों का उत्थान है, जिसमें संवेदनाएं हों, भावनाएं हों। मेरी कोशिश समाज को संवेदनशील बनाते हुए पाठकों को सशक्त करना और आध्यात्मिक स्तर की वृद्धि है। मेरी रचनाओं का उद्देश्य पाठकों में ऊर्जा का संचार करना और उनको अपनी अंतर्ध्वनि की तरफ आकर्षित करना है। मेरी उम्मीद साहित्य के माध्यम से उत्थान की है, संवेदनशील विचारों के निर्माण की है। सृजनात्मक शक्ति के बोध की है। सृष्टि की है।